Posts

Showing posts from June, 2021

ऐतिहासिक क्रम में हिंदी भाषा का उद्भव

  ऐतिहासिक क्रम में हिंदी भाषा का                         उद्भव                                                                                                                      डॉ. साधना गुप्ता     भारत में प्रमुख रूप से आर्य परिवार एवं द्रविड़ परिवार की भाषाएं बोली जाती हैं। उत्तर भारत की भाषाएं  आर्य परिवार की तथा दक्षिण भारत की भाषाएं द्रविड़ परिवार की  कहलाती हैं ।           उत्तर भारत की आर्य भाषाओं में संस्कृत सबसे प्राचीन है, जिसका प्राचीनतम रूप ऋग्वेद  में मिलता है। इसी की उत्तराधिकारिणी हिंदी  है।   भारतीय आर्यभाषाओं का काल विभाजन -    1 . प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल ( 1500 ई. पू. से 500 ईसवी पूर्व तक) 2 . मध्य भारतीय आर्यभाषा काल ( 500  ई. पू.   से 1000 ई.  तक) 3 . आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल (1000 ई.  से अद्यतन) प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल - इसमें वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत दो  भाषाएं थी। चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ ,उपनिषद् इसी काल की रचनाएं हैं। इनमें भाषा का एक रूप नहीं मिलता। ऋग्वेद   संस्कृत का प्राचीनतम ग्रंथ है।  लौकिक संस्कृत में रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ लिखे

प्रतीक समर्पण होता है पूजा-अर्चन

      प्रतीक समर्पण होता है पूजा-अर्चन                                           डॉ. साधना गुप्ता     प्रत्येक समाज में पूजा-अर्चना का एक विशेष रूप अवश्य होता है, जिसका उद्देश्य होता है स्वयं के व्यक्तित्व को परिष्कृत कर जीवन को व्यवस्थित बनाना। वास्तव में यही ईश्वर की पूजा, उपासना और अभ्यर्थना है।   वेदांत विज्ञान के चार महत्वपूर्ण सूत्र हैं  -  तत्वमसि अयमात्मा ब्रह्म  प्रज्ञानं  ब्रह्म  सोsहम्     इन चारो का एक ही अर्थ है ,-    परिष्कृत जीवात्मा ही ह परम  ब्रह्म है । जैसे - हीरा और  कुछ  नहीं ,कोयले  का ही परिष्कृत रूप होता है। हीरा मूल रूप में तो होता है कोयला ही है, परंतु जब उसके कण व्यवस्थित रुप में स्थापित होते हैं तो वह हीरा बन जाता है। अर्थात् श्रेष्ठ बन जाता है। ठीक ऐसी ही स्थिति मानव की है । यदि इसके मन-मस्तिष्क में,    अन्तः करण में  विद्यमान गंदगी को, कल्मष- कषाय  को उतार कर फेंक दिया जाए तो उसका वास्तविक सौंदर्य अतुलनीय होगा।  चाहे उसका बाहरी रूप अष्टावक्र जैसा ही क्यों न हो और यदि इसके अन्तः करण का सौंदर्य प्रकट हो जाता है तो वह बाहरी  कुरूपता महत्वहीन हो जाती है।   गीता

शांकर - प्रश्नोत्तरी का जीवन दर्शन

  शांकर -प्रश्नोत्तरी का जीवन दर्शन                                           डॉ. साधना गुप्ता         आद्य जगतगुरु शंकराचार्य ने हिंदू दर्शन किंवा  वैदिक दर्शनशास्त्र के तत्ववाद, अद्वैत सिद्धांत  को ही विशेष रूप से प्रतिष्ठित किया है और जीवन मुक्ति  की  अवस्था को  ही  मानव  जीवन  की सर्वोत्कृष्ट अवस्था घोषित किया है। विचार मात्र से सब  कुछ  कर  सकने  की  सामर्थ्य  से  अधिक सामर्थ्य और हो भी क्या सकती है?  वस्तुतः यही निष्ठा  मानव  जीवन  के  विकास  की   सर्वश्रेष्ठ अवस्था है और सर्वमान्य भी, क्योंकि यही वह सर्व कल्याणकारी,  विश्व  पोषक,   मंगलकारी, प्रभावोत्पादक दृष्टि है -जिसके माध्यम से विश्व - पोषकता  के रहस्य को  हृदयस्थ किया जा सकता है।    इस दूरदर्शिता को दृष्टिगत रखते हुए ही आचार्य शंकर   ने मात्र चौबीस  वर्ष की अल्पावस्था में ' प्रश्नोत्तरी' की रचना कर मानवीय मूल्यों को शाश्वतता  प्रदान करते हुए कई उलझी हुई  गुत्थियों को परत दर परत खोल कर रख दिया। परिणामतः  यह ग्रंथ लघुतर होने पर भी पथ प्रदर्शक महनीयता को प्राप्त कर गया है।    प्रश्नोत्तरी के संस्कृत श्लोकों   के विभिन्

निर्गुण सन्त साहित्य

                                              निर्गुण सन्त साहित्य                                               डॉ. साधना गुप्ता       हिंदी साहित्य के इतिहास को कालक्रम के आधार पर जिन चार भागों में विभाजित किया गया है उसमें दूसरे नम्बर पर आता है भक्तिकाल।  हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के नाम से विख्यात यह भक्तिकाल निर्गुण और सगुण दो विभागों में विभाजित है। इस विभाजन का आधार आराध्य की भक्ति पद्धति है, न्यूनता या श्रेष्ठता नहीं।    निर्गुण भक्ति साहित्य पुनः दो भागों में विभाजित है - ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी। इसी प्रकार सगुण भक्ति साहित्य भी दो भागों में विभाजित है - राम भक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा।    अन्य नाम -   ज्ञानाश्रयी भक्ति शाखा को निर्गुण सन्त साहित्य के नाम से भी पुकारा जाता है। अर्थ - निर्गुण सन्त न केवल ईश्वर के निराकार रूप में विश्वास करते हैं अपितु उसकी प्राप्ति का मार्ग ज्ञान को बताते हैं। ज्ञान अर्थात् उस परमात्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना । संसार को असत्य और परमात्मा को ही एकमात्र सत्य तत्व स्वीकार करना। प्रारम्

हिंदी भाषा का भारतीय सांस्कृतिक जागरण में योगदान

हिंदी भाषा का भारतीय सांस्कृतिक जागरण में योगदान                                                                     डॉ. साधना गुप्ता       किसी भी देश को गुलाम बनाना हो तो  वहाँ की भाषा में परिवर्तन कर दो, उनकी भाषा को उनके जीवन से निकल दो, उस देश का मानव समुदाय अपनी संस्कृति से भी स्वतः ही दूर हो जाएगा क्योंकि किसी भी स्थान की भाषा केवल मात्र विचार  सम्प्रेक्षण का माध्यम नहीं होती। वह उस स्थान विशेष की समूची  संस्कृति की भी वाहक होती है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं हमारा देश है। भारत मे ब्रिटिश काल में शिक्षा का माध्यम -   भारत मे ब्रिटिश शासकों द्वारा अंग्रेजी पद्धति के स्कूल कॉलेजों की स्थापना तथा लार्ड मेकाले जैसे  लोगों के कारण भारत में उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का बोलबाला प्रारंभ हो गया था। अंग्रेजी शिक्षा का यह प्रचार प्रसार  सर्वप्रथम बंगाल में प्रारम्भ हुआ। इसका एक विशेष कारण भी था। तब कलकत्ता विदेशी व्यापारी गतिविधियों का केंद्र था। पश्चिमोत्तर प्रदेश एवं अवध जो आज  उत्तर प्रदेश है को तो  बहुत बाद में ब्रिटिश राज्य में मिलाया गया।         लोगों का  झुकाव इस

हिंदी गद्य के उन्नायक राजा लक्ष्मण सिंह

  हिंदी गद्य के उन्नायक राजा लक्ष्मण सिंह                                              डॉ. साधना गुप्ता    हिंदी गद्य का विकास करने वाले साहित्यकारों में जिनका विशेष योगदान रहा उनमे लेखक चतुष्ट के रूप में पहचाने जाने वाले  लल्लूलाल, सदल मिश्र,  मुंशी सदासुख लाल नियाज, इंशा अल्ला खां के अतिरिक्त दो राजाओं का भी विशेष सहयोग  रहा , जिनके नाम हैं -  राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह।     राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द की  भाषा का स्वरूप बताता है वे हिंदी उर्दू की समस्या का हल करने का प्रयास करने की ओरअग्रसर हैं परन्तु राजा लक्ष्मण सिंह का दृष्टिकोण इनसे भिन्न है।     राजा लक्ष्मण सिंह मूलतः आगरा के रहने वाले थे । वे हिंदी भाषा की शुद्धता पर विश्वास करते थे और उन्होंने इस विषय में कोई समझौता नहीं करते हुए हिंदी के संवर्धन में अपना योगदान दिया - प्रजा हितेषी पत्र का संपादन -  इन्होंने सन् 1861 में आगरा से प्रजा हितैषी नामक पत्र निकाला।   अभिज्ञान शाकुंतलम् का अनुवाद -  सन् 1962 में  महाकवि कालिदास की कालजयी कृति  अभिज्ञान शाकुंतलम् का अनुवाद ' शकुंतला नाटक' के नाम से

आत्मोत्कर्ष की ओर सकारात्मक कदम है स्वाध्याय

आत्मोत्कर्ष की ओर सकारात्मक कदम है स्वाध्याय                                                                  डॉ. साधना गुप्ता स्वाध्याय शब्द दो शब्दों स्व और अध्ययन से मिलकर बना है जब मनुष्य स्वयं अपने अंतःकरण की गहराइयों में चिंतन मनन के सहारे प्रवेश करता है तब वह वहाँ उपयोगी तत्वों का बीजारोपण तथा  अनावश्यक तत्वों का उन्मूलन या निष्कासन कर पाता है इस दृष्टि से मनन एवं चिंतन को स्वाध्याय का मूल आधार कहा जाता है। हमारे उपनिषदों में  पुकार पुकार  कर कहा गया है,- अपने को सुनों, अपने बारे में जानों, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिंतन करो।    वास्तव में हम अपने को शरीर मानकर जीवन की उन गतिविधियों को निर्धारित करते हैं जिनसे शरीर  का स्वार्थ अत्यल्प ही सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्याण के लिए हमारे जीवन क्रम में स्थान ही कितना होता है ?  हम स्वयं को केवल शरीर मानते हैं। इसके स्थान पर यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन   समझे तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तब हमारी समस्त गतिविधियां ही उलट जाएगी।  हम आत्मा के हित, लाभ और कल्याण को ध्यान में रखकर अपनी रीति नीति

कबीर साहित्य : नूतन क्रान्ति का उद्घोष

    कबीर साहित्य :  नूतन क्रान्ति का उद्घोष                               डॉ. साधना गुप्ता      कबीर साहित्य बदतर जीवन स्थितियों के खिलाफ बेहतर जीवन स्थितियों के लिए यथा स्थितियों से विभेद की कविता होने के कारण पाँच सौ वर्षों के लंबे अंतराल के पश्चात् भी अपनी सामाजिक प्रासंगिकता बनाए हुए है। इनकी साखियों का संबंध लौकिक आचरणों से है, जिनमें कुछ निवृत्ति मूलक है और कुछ प्रवृत्ति मूलक। इनका उद्देश्य विचार स्वातंत्र्य से है क्योंकि जिनका मन दासता की बेड़ियों में जकड़ा हो, वह पाँवों की जंजीरे कैसे  तोड़ सकेगा ? यहाँ  हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि समाज सुधार एवं धर्म सुधार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समाज सुधारक को धर्म सुधारक होना ही होगा।     कबीर ने इस हेतु अपनी वाणी का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से किया है। अनेक प्रकार के अंधविश्वासों में जकड़ा जन मन हीन जीवन व्यतीत कर रहा था, तब कबीर ने कर्मकांड की भरपूर निंदा ही नहीं की अपितु जन मन को जमकर फटकार भी लगायी। सामाजिक उत्कर्ष की प्रक्रिया में नूतन क्रांति का बीजारोपण करने वाली इस वाणी की गर्भ चेतना स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की भ

सकारात्मक सोच से पाएं - प्रसन्नता के मधु कण

सकारात्मक सोच से पाएं - प्रसन्नता के मधु कण                           डॉ. साधना गुप्ता संसार का मूल रूप - संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोष मय होती। है ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसमें किसी प्रकार का दोष ना हो और ना ही कोई ऐसी चीज है जिसमें कोई गुण ना हो। वास्तव में सभी वस्तुएं परिस्थितियों और प्राणियों में गुण दोष दोनों ही विद्यमान होते हैं। मनुष्य के भीतर स्वयं देवी और आसुरी दोनों प्रकार की शक्तियां होती हैं, परिस्थितियों के अनुसार उसमें कभी कोई प्रवृत्ति उभरती है और कोई दबती है। जिस समय देवी प्रवृत्ति उभार पर होती है उस समय मनुष्य हमे भला प्रतीत होता है और जिस समय उसकी आसुरी प्रवृत्तियां उभार पर आती है उस समय  वह हमें बुरा प्रतीत होता है।  प्रकृति से सीखें - हर वस्तु में बुरे और भले दोनों ही तत्व होते हैं। उन्हें हम अपनी दृष्टि के अनुसार देखते हैं और वैसा ही अनुभव करते हैं। हंस के सामने पानी और दूध मिलाकर रखने पर वह दूध को ग्रहण करता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार फूलों में शहद होती है पर उसकी मात्रा इतनी कम होती है कि जब हम उन्हें खाते है तो हमें मिठास प्रतीत ही नहीं होती ,परन्तु