शांकर - प्रश्नोत्तरी का जीवन दर्शन

 शांकर -प्रश्नोत्तरी का जीवन दर्शन

   

                                      डॉ. साधना गुप्ता

  

    आद्य जगतगुरु शंकराचार्य ने हिंदू दर्शन किंवा  वैदिक दर्शनशास्त्र के तत्ववाद, अद्वैत सिद्धांत  को ही विशेष रूप से प्रतिष्ठित किया है और जीवन मुक्ति  की  अवस्था को  ही  मानव  जीवन  की सर्वोत्कृष्ट अवस्था घोषित किया है। विचार मात्र से सब  कुछ  कर  सकने  की  सामर्थ्य  से  अधिक सामर्थ्य और हो भी क्या सकती है?  वस्तुतः यही निष्ठा  मानव  जीवन  के  विकास  की   सर्वश्रेष्ठ अवस्था है और सर्वमान्य भी, क्योंकि यही वह सर्व कल्याणकारी,  विश्व  पोषक,   मंगलकारी, प्रभावोत्पादक दृष्टि है -जिसके माध्यम से विश्व - पोषकता  के रहस्य को  हृदयस्थ किया जा सकता है।


   इस दूरदर्शिता को दृष्टिगत रखते हुए ही आचार्य शंकर  ने मात्र चौबीस वर्ष की अल्पावस्था में 'प्रश्नोत्तरी' की रचना कर मानवीय मूल्यों को शाश्वतता  प्रदान करते हुए कई उलझी हुई  गुत्थियों को परत दर परत खोल कर रख दिया। परिणामतः  यह ग्रंथ लघुतर होने पर भी पथ प्रदर्शक महनीयता को प्राप्त कर गया है। 


  प्रश्नोत्तरी के संस्कृत श्लोकों   के विभिन्न अंगों पर दृष्टि निपात करने पर पद-पद पर उसकी महती विशेषताएं प्रत्यक्ष प्रमाणित होती जाती है। इस ग्रंथ की  सर्वागीण  पूर्णता  एवं   उपादेयता के प्रतिपादन में भले ही अनंत रहस्यमय  विशाल ग्रंथ लिखे गए हों या लिखे जाएं, किंतु विश्व की समस्त संस्कृतियों के समक्ष उज्ज्वल  मुँख, उन्नत ललाट किए खड़ी रहेगी यह 'प्रश्नोत्तरी'।



   हिंदी  कविता  कानन में  कवीन्द्र  हरनाथ  ने 'प्रश्नोत्तरी पद्यानुवाद' रूपी अशोक वृक्ष रोप कर हिंदी प्रेमियों को  आद्य शंकराचार्य के अत्यधिक निकट लाकर खड़ा कर दिया, जिसके सम्बन्ध में अथर्ववेद  उद्घोषणा करता है कि-

   'तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योः'


   अर्थात् उस परमात्मा को जान लेने वाला मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता है। जो अविश्वासी हैं, उनकी तो बात  करना  ही  यहाँ  असंगत  होगा  किंतु  जो निष्ठावान विश्वासी हैं, उनके लिए उल्लेखनीय सत्य यह है कि सृष्टि कर्ता सर्वज्ञ है और वह है - स्वस्थ चेतन।

 

   हरनाथ जी ने अपने दीर्घ अनुभव, तपःपूत ज्ञान और निरंतर चिंतन  द्वारा  जो आत्म  साक्षात्कार किया, उसी के  परम  पुरुषार्थ  ने  आपके  भावी जीवन को समाज के अंतिम  हित  संवर्द्धन  की दिशा  दी  जिसकी  परिणति  है - 'प्रश्नोत्तरी पद्यानुवाद'।

 

   जीवन और जगत का सार प्रस्तुत करने वाली यह रचना 'गागर में सागर' की उक्ति को सार्थकता देते हुए अपने प्रथम पद्य में ही भव विभव में पड़े फंसे   छटपटाते  जीवों    को   अतिशय   अपार भवसागर से पार उतारने हेतु पथ प्रशस्त करती है- 

 

भव- नीर निधि में परयो हो, गुरुदेव! शरण बताइये।

अतिशय अपार समुद्र को, कछु पार क्यों करि पाइये।

हरनाथ! मंगल मूर्ति हरि के, पद्य-  पद नित ध्याइये।

करि सहज तिनकी नाव ,भीषण भव-जलधि तर जाइये।

 

   आचार्य श्री के मन में जो जो संकल्प-विकल्प एक साथ उठ खड़े हुए, उनमें जीव   का  जगत बंधन, मुक्ति, विरक्ति तथा नर्क और   स्वर्ग  की उलझन से त्राण पाने की   युक्ति  के   समाधान क्रमानुसार दृष्टव्य हैं -  विषय  वासना  से  मुक्ति, आत्म शुद्धि, देह को ही आत्मा मानना और तृष्णा रहित जीवनचर्या व्यतीत करना ही जीवन का परम लक्ष्य है - 

है जग बंध्यो जन कौन? जाकी विषम विषयानि वासना।

अरु मुक्त कौन? विरक्ति, विषयनि शुद्ध आत्म-उपासना।

कहु नरक घोर कहाँ यहाँ? निज देह कल्पित भासना।

त्यों स्वर्ग सम्भव पद कहाँ? हत तरल तृष्णा नासना।


  आगे कुछ अन्य प्रश्नों के प्रति भी जिज्ञासु दिखाई देते हैं - कौन सत् अपेक्षी गुरु है? गुरु भक्त शिष्य कौन है? तथा   ऐसा  कौनसा  असाध्य  रोग  है जिसकी औषधि अप्राप्य हो?  इनके   उत्तर  भी कितने सटीक बन पड़े हैं - जो उपदेष्टा  हैं, निर्मल-निश्छल बुद्धि वाला है तथा जन्म मरण रूपी चिंता के असाध्य रोग का आत्म चिंतन द्वारा निदान किया जा सकता है -

 गुरुवर कहो- गुरु कौन है? जो देत हित उपदेश ही।

 पुनि शिष्य को? गुरु भक्ति भाजन, विमल बोध विशेष ही।

 हे रोग कौन असाध्य  या जग? जन्म मरण क्लेश ही ।

तिमि तासु औषध है कहां ? आतम विचार हमेस ही।

 

  प्रश्न माला में  सुमनों की विविधता है। पुनः पूछ बैठते हैं - संसार के समस्त विषयों  में कौन सा सर्वाधिक मारक है?  इस धरा धाम पर सर्वथा दुखी कौन है? तथा किस का जीवन धन्य है? सर्व पूज्यमान इस पृथ्वी पर कौन है?  इन प्रश्नों को अनुत्तरीय वही कह सकता है जिसने प्रश्नोत्तरी का अध्ययन नहीं किया। प्रश्नोत्तरी के पास इनके समाधान है - वासना ही विषय है, विषयानुरक्ति ही दुःख का मूल कारण तथा परहित की भावना ही जीवन को धन्य करने वाली है और सार्वकालिक पूज्य है- ब्रह्म का विचार -

  

कहु कौन हलाहल विषम  विष? विषय  ही सब लेखिये।

पुनि कौन वसुधा पर दुखी? रति जासु विषयनि देखिये।

गुरुदेव! कहिये धन्य कहि?  अनन्य परहित पेखिये।

पुनि पूज्य पुहुमी कौन? ब्रह्म विचार-रत अवरेखिये।


   पुनः  एक कदम आगे बढ़ाते हुए प्रश्न कर उठते हैं,- संसार की लघुता गुरुता पर,   वसुधा    पर  अजन्मे जीव पर तथा मृत सम कौन है? उत्तर सापेक्ष है-  याचना की मूल भावना लघुता  का द्योतक है तथा  गुरुता   का  मूल  आधार    है -  अयाचित जीवन। अजन्मा  वह   है   जिसका पुनर्जन्म न  हुआ हो। मूलतः मृत व्यक्ति वह  है  जिसे एक बार मरने के उपरांत पुनः न मरना पड़े  -

संसार में लघुता कहां है?  इक याचना ही जानिये।

पुनि कहां गुरुता मूल?   कबहूँ न मांगि तोहि प्रभानिये।

या जगत जन्मयों कौन?  जाकी पुनि न जन्म बखानिये।

अरु मृतक कहिये काहि? जासु न मृत्यु पुनि अनुमानिये।


   अंत में आचार्यश्री प्रणतिपाद होना भी नहीं भूले हैं - 'प्रश्नोत्तरी' के प्रतिधन्य है उनकी यह श्रद्धा जो इस भवसागर के प्राणी मात्र को प्रश्नोत्तरी के कंठाभरण, तथा श्रवण करने को निर्दिष्ट करती है। ऐसी भावुकतामयी मंजुलता, आनंददायिनी  सुखानुभूति, ब्रह्म रस में सराबोर कर देने की क्षमता युक्त यह पदावली कितनी भावुक है ओर है मनभावनी - 

 प्रश्नोत्तरी मणिरत्न माला, कलित कंठ सुहावनी। 

श्रवणाभरण मंजुल महा, हरनाथ भावुक भावनी।

 हरि-हर कथा इत दिव्य, आनंद- रस सुख सरसावनी।

कवि को  वदन को नित रहे, यह ब्रह्म रस बरसावनी।


 हिंदी साहित्य, विशेषतः ब्रज भाषा में पद्यानुवाद कर कवीन्द्र ने यह प्रमाणित कर दिखाया है कि सजीव एवं लोक-व्यवहार की भाषा विद्वत् समाज में समादृत होती है। आनन्द तब और भी बढ़ जाता है जब पाठक के समक्ष दोनों भाषाएँ प्रत्यक्ष हों। अध्ययन - मनन की दृष्टि से यह आवश्यक भी है।


   यहाँ यह तथ्य भी स्मरणीय है कि नीतिशतक लिखते समय भर्तृहरि  ने भी इसी 'प्रश्नोत्तरी' का अनुसरण किया था।


हरिगीतिका छन्द में अनुवादित शीर्षस्थ पुरूष की 'प्रश्नोत्तरी' में भाव व प्रवाहपूर्ण शब्दावली का मणिकांचन योग है। क्यों न हो? इसमें वह सभी कुछ तो है जो जीवन की उषा-काल विधायक रचना में विद्यमान होता है या होना चाहिए। कवि द्वारा प्रयुक्त छन्द की विशुद्धता, लयबद्धता, यति-गति का अनुपम अनूठा ज्ञान, स्वाभाविकता, अर्थ सौष्ठव और प्रसाद गुण की स्निग्धता का मंजुल सन्निवेश अद्वितीय ही है।


इस चमत्कार के पार्श्व में हमें देखना होगा - 'छन्द'के प्रत्येक चरण के पूर्वार्द्ध में प्रश्न और उत्तरार्द्ध में उसका उत्तर है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि - प्रथम शंका है फिर तत्काल उसका समाधान, ठीक भगवद्गीता की पद्धति पर। प्रश्न कर्ता के मन में प्रश्न की अकुलाहट बनी नहीं रहती, शांत होती जाती है।


इसका  एक वैशिष्ट्य यह भी है कि आत्मतत्व और परमतत्व की दार्शनिक- आध्यात्मिक उन्नति का एक मात्र आधार गुरुदेव अथवा आराध्य देव की कृपा पर ही आश्रित है, यह माना है - " ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से किया गया अध्ययन ही विश्वास उत्पन्न करता है",  

  अस्तु यह मात्र भावनात्मक श्रद्धांजलि ही नहीं, अपितु कवीन्द्र की पुरुषार्थ जन्य श्रद्धांजलि भी है - "अपने आराध्य के प्रति"इसकी पुष्टि साहित्य मनीषी 'वियोगी हरि' द्वारा पुस्तिका की भूमिका में कही यह पक्तियाँ भी करती है -"अब तक संस्कृतज्ञ ही इसका रस पान करते थे, अब हमारे हिंदी भाषा-भाषी भी इस अमूल्य सुधा का पान कर सकेंगे।"


   वस्तुतः इस पद्यानुवाद का एक मात्र सत्य यही है कि कवीन्द्र ने निर्लेप, निर्विकार भाव से शंकराचार्य के भावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति दी है जो इस सत्य, इस तथ्य   की   ओर  इंगित  करती  है  कि कवीन्द्र   के   मन-मस्तिष्क  में  एक   विचारशील दार्शनिक की दृष्टि एवं लोक सभ्यता के उत्थापक परिव्राजक  तार्किक  शिरोमणि   शंकराचार्य   के यायावरी जीवन की परिकल्पना विद्यमान थी।

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