कबीर साहित्य : नूतन क्रान्ति का उद्घोष

 

 कबीर साहित्य :  नूतन क्रान्ति का उद्घोष


                             डॉ. साधना गुप्ता 



   कबीर साहित्य बदतर जीवन स्थितियों के खिलाफ बेहतर जीवन स्थितियों के लिए यथा स्थितियों से विभेद की कविता होने के कारण पाँच सौ वर्षों के लंबे अंतराल के पश्चात् भी अपनी सामाजिक प्रासंगिकता बनाए हुए है। इनकी साखियों का संबंध लौकिक आचरणों से है, जिनमें कुछ निवृत्ति मूलक है और कुछ प्रवृत्ति मूलक। इनका उद्देश्य विचार स्वातंत्र्य से है क्योंकि जिनका मन दासता की बेड़ियों में जकड़ा हो, वह पाँवों की जंजीरे कैसे  तोड़ सकेगा ? यहाँ  हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि समाज सुधार एवं धर्म सुधार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समाज सुधारक को धर्म सुधारक होना ही होगा।


   कबीर ने इस हेतु अपनी वाणी का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से किया है। अनेक प्रकार के अंधविश्वासों में जकड़ा जन मन हीन जीवन व्यतीत कर रहा था, तब कबीर ने कर्मकांड की भरपूर निंदा ही नहीं की अपितु जन मन को जमकर फटकार भी लगायी। सामाजिक उत्कर्ष की प्रक्रिया में नूतन क्रांति का बीजारोपण करने वाली इस वाणी की गर्भ चेतना स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की भावना है जो वर्तमान सन्दर्भो में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। विस्तार भय से बचने के लिए हम कुछ महत्वपूर्ण बातों से अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।


आडम्बरों का विरोध - आज जब समूचे विश्व में आतंकवाद का जगह फैला हुआ है तब कबीर के दोहों को स्मरण करना, आत्मसात करना बहुत प्रासंगिक लगता है। एकेश्वरवादी एवं कर्मकांड विरोधी कबीर अवतारवाद, मूर्ति पूजा, मंदिर-मस्जिद से दूर थे। तत्कालीन समय में हिंदू जनता पर धर्मांतरण का दबाव था। ऐसे समय में कबीर ने दोनों धर्मों के कर्मकांडों  का विरोध किया एवं ईश्वर एक है इस सत्य को नाना भाँति से सहज- सरल भाषा में समझाया, ज्ञान से ज्यादा प्रेम को महत्वपूर्ण बताया - 


     पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

     ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। 


मानव मात्र की समानता का उद्घोष - कबीर धर्म को आडंबरों से परे एक मात्र सत्य सत्ता मान कर, इसी आधार पर मानव मात्र को सामान सिद्ध करते हैं। उन्होंने स्वयं को भी धर्म के बंधन से दूर रखा, स्वयं को ना हिंदू कहा ना मुसलमान। यदि आज कबीर की इस विचारधारा को समाज आत्मसात कर ले तो हमारी 50% से अधिक समस्याएं स्वत ही समाप्त हो जाएगी। सांप्रदायिकता के हलाहल से समाज मुक्त होगा। आरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी, हर  भारतवासी केवल भारतीय होगा। इंसान से इंसान का प्रेम का नाता होगा। 


शांति प्रिय जीवन के उपासक -  कबीर सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। पराये दोष देखने से पूर्व स्वयं के दोष देखने में विश्वास रखते थे -


         दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत,

       अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

  

   यह दोहा आज बहुत प्रासंगिक है। सीधे-तीखे स्वर मन को मथ डालने में सक्षम है। राजनीतिक, सामाजिक धार्मिक सभी क्षेत्रों में सटीक है, क्योंकि आज जब एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के दोषों की ओर इंगित किया जाता है तो प्रत्युत्तर के स्थान पर दूसरा पक्ष प्रश्न कर्ता को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है। आरोप प्रत्यारोप के कीचड़ में सत्य का गंगाजल विलुप्त हो जाता है। स्वस्थ आलोचना कोई  स्वीकार नहीं करता, जबकि स्वस्थ आलोचना का बहुत लाभ है। स्वयं कबीर के शब्दों में - 


        निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।

       बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

 

मर्यादित मधुर वाणी का प्रयोग - आज आरोप-प्रत्यारोप में अमर्यादित भाषा प्रयोग आम बात हो गयी है जिसे शिष्ट समाज के लिए कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यत्र-तत्र वाणी की कटुता, नफरत और क्रोध का आलम है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति मानसिक संतुलन खोता जा रहा है। ऐसे में प्रत्येक से मृदु बानी बोलने   की कबीर की अपील की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है -  


          ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोए। 

         औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय। 


सार संग्रह - बाजारवादी संस्कृति के वर्तमान समय में व्यक्ति व्यर्थ की बातों में, बहस में, क्रियाकलाप में उलझ कर नहीं रह जाए अतः कबीर की उक्ति है - 

           साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।

           सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।


वाणी का संयम -  संचार क्रांति के दौर में आज मुँह से निकली बात पूरी दुनिया में पलक झपकते ही वायरल हो जाती है। ऐसे में कबीर का यह दोहा हमें सचेत करता है -


         बोली एक अमोल है, जो कोई बोलै जानि।

        हिये तराजू तोलि के तब मुख बाहर आनि।

    यदि इस बात को गांठ बांधकर व्यवहार किया जाए तो फिर नेताओं/अभिनेताओं को अपने वक्तव्य के लिए स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। 


जातिवाद का विरोध - जातिवाद के हलाहल ने आज आरक्षण रूपी कैंसर बन समाज को जकड़ लिया है और प्रतिभाओं को लील के देश की प्रगति को अवरूद्ध कर दिया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अपनी ही कशमकश में फंसा समाज जातिगत आरक्षण के रूप में राजनीति की बिसात से ऐसा बीज उठा लाया है जो उसे सुविधा का मुहरा तो दिखाई देता है पर सुविधा मिलते ही वह जिस मानसिकता से पीड़ित हो जाता है वह स्थिति स्वयं उसी के लिए भयानक है। त्रिशंकु सा वह अपने ही वर्ग से कटा, नहीं जान पाता कि जितने  पर्दों को हटाते हुए वह आगे बढ़ रहे हैं, उनके पीछे उतने ही परदे और बन जाते हैं और इस माया नगरी में वह कहीं भटक जाते हैं। इस भटकन का करारा जवाब कबीर का यह दोहा है - 

 

       जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। 

        मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।

 यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि इस बात को आत्मसात कर लिया जाए तो हमारा देश विश्व में ज्ञान-मान- समृद्धि में सर्वोच्च शिखर पर होगा।


अति का विरोध -  जीवन में संतुलन परम आवश्यक है। अधिकता किसी भी चीज की हानिकारक होती है। वर्तमान भौतिकवादी युग को इसलिए कबीर का संदेश है - 

 

  अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप।

 अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।


कर्म का महत्व -  कोई कर्म छोटा नहीं होता, अतः उच्चता व नीचता का संबंध व्यवसाय  से नहीं जोड़ा जा सकता। ओहदा बड़ा होना महत्वपूर्ण नहीं होता। महत्वपूर्ण है उसकी उपयोगिता। यही कारण है कि अपने को जुलाहा कहने में उन्होंने कभी शर्म महसूस नहीं की। आजन्म जुलाहे का व्यवसाय करते रहे। कबीर के ये दोहे आज भी मानव के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं -  

         बड़ा भया तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

         पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।


    तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पावन तर होय।

    कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।


सादा जीवन -  आज धन- दौलत, एशो आराम के साधनों की पूर्ति की दौड़ में भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती इत्यादि अपराध फल-फूल रहे हैं। कबीर धन का महत्व मानते हैं पर केवल इतना सा -

     साईं इतना दीजिए, जामे कुटुुुम्ब  समाय ।

     मैं भी भूखा ना रहूँ,  साधु न भूखा जाय ।

             

स्वावलम्बन -  कबीर ने इन आर्थिक संसाधनों की पूर्ति के लिए स्वावलंबन को महत्व दिया। वह उन ज्ञानियों में नहीं थे जो हाथ पर हाथ रखकर समाज पर बोझ बनकर रहते हैं। वरन् वह परिश्रम को महत्व देते हुए अपनी आजीविका के लिए अपने हाथों से कर्म करते थे। 

   कर्म का यह संदेश आज के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के लिए एक सबक से कम नहीं है। यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वे आजीविका के लिए स्वावलंबन को महत्व देते थे। धन-संपत्ति संग्रह उनका उद्देश्य कदापि नहीं था, अतः थोड़े में ही संतोष करने का उपदेश दिया - 


       चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह।

       जिनको कुछ नहीं चाहिए, वह शहंनशाह। 


परोपकार - अपनी कमाई में से वे कुछ अंश संतों की सेवा में भी लगाते थे। आवश्यकता पड़ने पर पूर्ण कमाई तक लगा देते थे। परोपकार की यह मिसाल आज की स्वार्थी समाज के लिए कितनी उपयोगी है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। प्रसिद्ध है कि एक बार उन्होंने कपड़े का पूरा थान एक फकीर को दे दिया था और स्वयं खाली हाथ घर लौट गए। धन व धरा का संग्रह उनकी संतोषी वृत्ति  के विपरीत है -  

      काहे के मंदिर महल बनाऊँ, 

      मूवाँ पीछे घड़ी एक  रहन न पाऊँ। 


 कबीर लालच के फल की ओर भी ध्यान दिलाते हैं -  

      मक्खी गुड़ में गड़ी रहे, पांव रही लिपटाये।

       हाथ मले और सिर ढूंढे, लालच बुरी बलाय।


धैर्य - कबीर के अनुसार महत्वकांक्षी होना बुरा नहीं है, अनुचित है उसके लिए अंधी दौड़ में पड़कर अपना सुख चैन गवाना, क्योंकि सभी कार्य अपने नियत समय पर ही होते हैं। सभी कुछ शीघ्र प्राप्त करने के आकांक्षी वर्तमान मानव को कबीर का संदेश है -  


       धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

       माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।


ईश्वर पर अगाध विश्वास -  आज विज्ञान ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो परंतु वह उस ईश्वर से बहुत पीछे हैं। विश्व नियंता उस ईश्वर पर कबीर को अटूट विश्वास है। उनके राम परम समर्थ, समस्त जीव-जगत से अभिन्न,  सब में व्याप्त है।  कण-कण में उनकी उपस्थिति है -  

व्यापक ब्रह्म सबहिन में एकै, को पंडित, को  भोगी। 

 रावन राव कवन सूं, कवन वेद को रोगी। 


कर्म महत्वपूर्ण, स्थान नहीं -  अपने आराध्य पर पूर्ण आस्था रखने वाले कबीर व्यक्ति की गति का आधार स्थान विशेष नहीं अपितु उसके कर्मों को मानते थे, जिसे सिद्ध करने के लिए  वह अंत समय में काशी से मगहर चले गए थे। कर्म शुद्धि का यह आचरण आज मानव अपना ले तो रामराज्य आने में वक्त नहीं लगेगा। 


   वस्तुतः कुटिलता की ओर बढ़ते समाज के चरणों को कबीर सरलता की ओर ले जाना चाहते हैं, सरलता की उस पराकाष्ठा की ओर जो बालकों में होती है। जिसे पाने के लिए पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ ही क्षुब्ध हैं, उसे पाना चाहते हैं। कबीर के अनुसार उसका रास्ता भी अत्यंत सरल है - 'यदि मानव स्वयं भक्ति भाव से अपने मन को निर्मल कर परमात्मा की ओर मुड़े तो वह फिर से इस सरलता को प्राप्त कर बालक हो सकता है -

 

  जो तन माहै मन धरै, मन धरि निर्मल होई,

  साहिब सो सन्मुख रहै, तो फिरि बालक होई। 


कबीर का सारल्य ऐसे ही बालकत्व का फल है। 'झीनी- झीनी बीनी चदरिया' को 'ज्यों  का त्यों धर देने' वाले कबीर को अपने आराध्य के आधार का वह विश्वास प्राप्त है जो समस्त सृष्टि में परमात्मा की अनुभूति पाकर प्राणी मात्र को समता की दृष्टि से देखता है। ईश्वर साक्षात्कार की गर्मी से निकले कबीर के यह कथन समाज को, तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को सरलता से जीवनयापन करने का पाठ पढ़ाते हैं। यदि आज हर व्यक्ति कथनी करनी में इतनी स्पष्टता अपना ले तो इस धरा को स्वर्ग बनने में समय नहीं लगेगा।

  'तुम समान दाता नहीं, हम से नहीं पापी' कहने वाले कबीर में उच्चतम् मनुष्यता का प्रेममय गर्व है। जिसकी आत्मा विनय है जो यहाँ तक पहुँची है कि वे बाट का रोड़ा होकर रहना चाहते हैं जिस पर सबके  पैर पड़ते हैं। परंतु रोड़ा पाँव में चुभकर बटोहियों को दुख देता है इसलिए वे धूल के समान रहना उचित समझते हैं। परंतु धूल भी उड़ कर शरीर पर गिरती है और उसे मैला करती है, इसलिए पानी की तरह रहना चाहिए जो सबका मैल धोवे। पर पानी भी ठंडा और गर्म होता है जो अरुचि का विषय हो सकता है। इसलिए भगवान की ही तरह होकर रहना चाहिए। वस्तुतः कबीर का गर्व व दैन्य दोनों ही वर्तमान मानव को उसकी परमात्मिकता की अनुभूति करवाने वाले हैं। सामाजिक व पारिवारिक जीवन को अनुपमेय में बनाने वाले हैं। आवश्यकता उसके अनुकरण की है। 



   सार रूप में कबीर का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। कबीर इस तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि विष वृक्ष को काटने के लिए जड़ पर प्रहार तर्क संगत होता है। केवल शाखा-पर्ण तोड़ने से समय व शक्ति का अपव्यय होगा। अतः समय की धारा को संग ले, अभिव्यक्ति सौष्ठव को बरकरार रखते हुए कबीर ने जो जीवन सूत्र प्रस्तुत किए उनके परिणाम स्वरुप वर्णाश्रम व्यवस्था पीले पत्ते की तरह झड़कर नवांकुरण की राह पर अग्रसर है। वस्तुतः सामाजिक संदर्भों में कबीर साहित्य का अध्ययन-अध्यापन, मनन व आत्मीकरण  सामाजिक, सांस्कृतिक स्तरों पर घटित होने वाले संतुलन परिवर्तन का आधार सिद्ध हो सकता है,- ऐसा हमारा विश्वास है। निश्चित ही वर्तमान में कबीर का साहित्य सामाजिक उत्कर्ष की प्रक्रिया में नूतन क्रांति का उत्कर्ष प्रस्तुत करता है।

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