हिंदी गद्य के उन्नायक राजा लक्ष्मण सिंह

 हिंदी गद्य के उन्नायक राजा लक्ष्मण सिंह

                                            डॉ. साधना गुप्ता


   हिंदी गद्य का विकास करने वाले साहित्यकारों में जिनका विशेष योगदान रहा उनमे लेखक चतुष्ट के रूप में पहचाने जाने वाले  लल्लूलाल, सदल मिश्र,  मुंशी सदासुख लाल नियाज, इंशा अल्ला खां के अतिरिक्त दो राजाओं का भी विशेष सहयोग  रहा , जिनके नाम हैं -  राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह। 

   राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द की  भाषा का स्वरूप बताता है वे हिंदी उर्दू की समस्या का हल करने का प्रयास करने की ओरअग्रसर हैं परन्तु राजा लक्ष्मण सिंह का दृष्टिकोण इनसे भिन्न है।

   राजा लक्ष्मण सिंह मूलतः आगरा के रहने वाले थे । वे हिंदी भाषा की शुद्धता पर विश्वास करते थे और उन्होंने इस विषय में कोई समझौता नहीं करते हुए हिंदी के संवर्धन में अपना योगदान दिया -

प्रजा हितेषी पत्र का संपादन -  इन्होंने सन् 1861 में आगरा से प्रजा हितैषी नामक पत्र निकाला।

 अभिज्ञान शाकुंतलम् का अनुवाद -  सन् 1962 में  महाकवि कालिदास की कालजयी कृति  अभिज्ञान शाकुंतलम् का अनुवाद 'शकुंतला नाटक' के नाम से सरल एवं विशुद्ध हिंदी में प्रकाशित किया। शकुंतला नाटक की भाषा-शैली को देख कर अंग्रेज विद्वान प्रेडरिक पिन्काट   बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इस नाटक का परिचयात्मक विवरण देते हुए बहुत सुंदर लेख लिखा  तथा 1875 में  इसे इंग्लैंड में प्रकाशित कराया।  प्रेडरिक पिन्काट साहब हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे और भारत का दिल से हित चाहते थे।

    शकुंतला नाटक  में   खड़ी  बोली  हिंदी  का जो नमूना आपने प्रस्तुत   किया था उसे   देखकर  लोग  चकित  रह  गए। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने अपनी "गुटका" में इस रचना को स्थान दिया।  इस कृति से लक्ष्मण सिंह को पर्याप्त ख्याति मिली और इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार किया गयाइससे लेखक को धन और सम्मान दोनों मिले। इस सम्मान से राजा साहब को अधिक प्रोत्साहन मिला।

रघुवंश  का  अनुवाद - इन्होंने शाकुंतलम्  के अनुवाद की सफलता से प्रोत्साहित होकर 1877 में रघुवंश  का हिंदी अनुवाद    किया और इसकी भूमिका में अपनी भाषा संबंधी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा

'हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी फारसी के। परंतु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों।'

मेघदूत का अनुवाद - सन् 1881 ई. में आपका "मेघदूत" के पूर्वार्ध और 1883 ई. में उत्तरार्ध का पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ जिसमें - चौपाई, दोहा, सोरठा, शिखरिणी, सवैया, छप्पय, कुंडलिया और धनाक्षरी छंदों का प्रयोग किया गया है। इस पुस्तक में अवधी और ब्रजभाषा, दोनों के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग ह

   अनुवादक के रूप में राजा लक्ष्मण सिंह को सर्वाधिक सफलता मिली। आप शब्द-प्रतिशब्द के अनुवाद को उचित मानते थे, यहाँ तक कि विभक्ति प्रयोग और पदविन्यास भी संस्कृत की पद्धति पर ही रहते थे। राजा साहब के अनुवादों की सफलता का रहस्य भाषा की सरलता और भावव्यंजना की स्पष्टता रही है। उनकी टकसाली भाषा का प्रभाव उस समय के सभी लोगों पर पड़ा और तत्कालीन सभी विद्वान् उनके अनुवाद से प्रभावित हुए। खड़ी बोली  हिंदी की सेवा में इनका यह योगदान अविस्मरणीय है।

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