निर्गुण सन्त साहित्य

                       

                     निर्गुण सन्त साहित्य


                                             डॉ. साधना गुप्ता


     हिंदी साहित्य के इतिहास को कालक्रम के आधार पर जिन चार भागों में विभाजित किया गया है उसमें दूसरे नम्बर पर आता है भक्तिकाल।  हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के नाम से विख्यात यह भक्तिकाल निर्गुण और सगुण दो विभागों में विभाजित है। इस विभाजन का आधार आराध्य की भक्ति पद्धति है, न्यूनता या श्रेष्ठता नहीं।


   निर्गुण भक्ति साहित्य पुनः दो भागों में विभाजित है - ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी। इसी प्रकार सगुण भक्ति साहित्य भी दो भागों में विभाजित है -राम भक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा।   


अन्य नाम -  ज्ञानाश्रयी भक्ति शाखा को निर्गुण सन्त साहित्य के नाम से भी पुकारा जाता है।


अर्थ - निर्गुण सन्त न केवल ईश्वर के निराकार रूप में विश्वास करते हैं अपितु उसकी प्राप्ति का मार्ग ज्ञान को बताते हैं। ज्ञान अर्थात् उस परमात्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना। संसार को असत्य और परमात्मा को ही एकमात्र सत्य तत्व स्वीकार करना।


प्रारम्भ-  निर्गुण संत साहित्य में सबसे पहले उन संतों की श्रेणी आती है जो दक्षिण के आलवार संतो से प्रभावित थे तथा जिन पर शिव साधना का भी प्रभाव था क्योंकि नाथ संप्रदाय का प्रभाव उत्तर भारत में भी दूर-दूर तक था।


मान्यताएँ -  नाथ संप्रदाय तथा हठयोगियों से प्रभावित संत कवियों ने सबसे अधिक व्यक्ति के आचरण की शुद्धता पर जोर दिया। इन्होंने यह इसलिए भी किया क्योंकि भारतीय समाज तब धर्म के जिस कर्मकांडीय और पाखंडी रूप से आक्रांत था, उसमें अनेक प्रकार की विसंगतियां आ गई थी। संत कवियों ने 

 सादा जीवन, 

 सहज जीवन, 

 सामूहिक जीवन, 

 सदाचारी जीवन, 

 परोपकारी जीवन

 कथनी करनी में एकरूपता

 परमात्मा में विश्वास

 जीवन का अंतिम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति

 मानव मात्र की समानता जैसे मानवीय तत्वों पर   जोर दिया। 


ईश्वर का स्वरूप -  उनकी दृष्टि में ईश्वर निराकार निर्गुण और सर्वव्यापी है। आत्मा उसी का अंश है।जो उस परमात्मा से मिलकर ही शांति प्राप्त करती है - 

जल में कुंभ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।

फुट्यो कुम्भ जल जल ही समाना, यह तथ्य कहत है ज्ञानी।


ईश्वर प्राप्ति - शुद्ध आचरण और साधना द्वारा आत्मा परमात्मा का मिलन हो सकता है। संत कवियों ने अंधविश्वासों धार्मिक पाखंड तथा कर्मकांड का खुलकर विरोध किया।


   संत मानव धर्म के पक्षधर हैं जो हिंदू - मुसलमान, गरीब - अमीर ,सवर्ण- अवर्ण सबको समान मानता है। 


सन्त पंथ में अग्रणी - प्रारम्भ कर्ता और अग्रणी दो भिन्न-भिन्न विषय हैं।जब सन्त मत के प्रारम्भ कर्ता की बात की जाती है तो सन्त मत के प्रारम्भ कर्ता सन्त नामदेव हैं , परन्तु    अग्रणी कबीर हैं। जिन्होंने कबीर पंथ भी चलाया। 


   कबीर आदि सन्त मानव धर्म के उन्नायक हैं। तथा जीवन को सुखद बनाने को उत्सुक हैं। 


   कबीर आदि सन्त हठयोग साधना को भक्ति का साधन मानते हैं। 

 

स्मरणीय तथ्य - ध्यान रखने योग्य बात यह है कि संत साहित्य की निर्गुण भक्ति धारा के प्रारंभ की बात जब करते हैं तो वह प्रारंभ कबीर से नहीं नामदेव से माना जाता है क्योंकि नामदेव जी पहले संत थे परंतु प्रचारित करने का श्रेय अवश्य कबीर को है इसलिए यदि यह प्रश्न पूछा जाए प्रारंभ कर्ता कौन है तो नामदेव सर्वोपरि माने गए हैं।

Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी पत्रकारिता का आधार उदन्त मार्तण्ड

देवनागरी लिपि का मानकीकरण

महाराजा अग्रसेन का उपकारहीन उपक्रम: एक निष्क और एक ईंट