हिंदी भाषा का भारतीय सांस्कृतिक जागरण में योगदान
हिंदी भाषा का भारतीय सांस्कृतिक जागरण में योगदान
डॉ. साधना गुप्ता
किसी भी देश को गुलाम बनाना हो तो वहाँ की भाषा में परिवर्तन कर दो, उनकी भाषा को उनके जीवन से निकल दो, उस देश का मानव समुदाय अपनी संस्कृति से भी स्वतः ही दूर हो जाएगा क्योंकि किसी भी स्थान की भाषा केवल मात्र विचार सम्प्रेक्षण का माध्यम नहीं होती। वह उस स्थान विशेष की समूची संस्कृति की भी वाहक होती है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं हमारा देश है।
भारत मे ब्रिटिश काल में शिक्षा का माध्यम - भारत मे ब्रिटिश शासकों द्वारा अंग्रेजी पद्धति के स्कूल कॉलेजों की स्थापना तथा लार्ड मेकाले जैसे लोगों के कारण भारत में उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का बोलबाला प्रारंभ हो गया था। अंग्रेजी शिक्षा का यह प्रचार प्रसार सर्वप्रथम बंगाल में प्रारम्भ हुआ। इसका एक विशेष कारण भी था। तब कलकत्ता विदेशी व्यापारी गतिविधियों का केंद्र था। पश्चिमोत्तर प्रदेश एवं अवध जो आज उत्तर प्रदेश है को तो बहुत बाद में ब्रिटिश राज्य में मिलाया गया।
लोगों का झुकाव इस ओर होना स्वस्भविक था क्योकि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को नौकरी आसानी से मिलती थी।
इस शिक्षा पद्धति का एक सकारात्मक पहलू भी है और वह है अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने भारतीय बुद्धिजीवियों को भी सचेत - जागरूक किया और जनजागरण हेतु यहाँ ब्रह्मसमाज, प्रार्थना सभा, रामकृष्ण मिशन, आर्यसमाज, थियोसोफिकल सोसाइटी जैसी कई संस्थाएं स्थापित की गई। इन संस्थाओं का सामान्य उद्देश्य तो भारतीय जनमानस में जड़ जमाए हुए सामाजिक बुराइयों को दूर करना था। ईश्चर की एक सत्ता के माध्यम से मानव मात्र को समान मानने की अपील करना था और समाज के आधे हिस्से नारी को कुप्रथाओं से मुक्त करना था परन्तु इससे हिंदी को भी एक नयी राह मिली।
आर्य समाज -
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस संस्था की स्थापना हिंदू धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन हेतु की थी परंतु समूचे देश में राष्ट्रीय भावना का संचार करने एवं राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार करने का श्रेय भी इन्हें ही है। केशवचंद्र सेन के आग्रह - सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिंदी गद्य में करो, को स्वीकार कर सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिंदी में की ओर आर्य समाज का सारा कामकाज हिंदी में प्रारंभ कर दिया। आर्य समाज का विशेष प्रभाव उत्तर प्रदेश गुजरात पंजाब में रहा।
स्वामीजी ने हिंदी को विशेष महत्व व सम्मान प्रदान करते हुए आर्यभाषा कहा।
आर्यसमाज ने अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की तथा पुस्तको, पत्र-पत्रिकाओं, उपदेशों ,प्रवचनों, शास्त्रार्थों के अनुवाद ग्रन्थों के माध्यम से हिंदी के प्रचार- प्रसार मे महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी के गद्य साहित्य को समृद्ध कर नवीन गति प्रदान की।
थियोसोफिकल सोसायटी -
थियोसोफिकल सोसायटी की एक शाखा 1882 ई. में मद्रास अड्यार में खोली गयी। इस संस्था की इंग्लैंड शाखा से सम्बद्ध श्रीमती एनी बेसेंट 1893 ई. में भारत आई और सोसाइटी के विकास में तन मन से जुट गई। अपने असाधारण एवं गतिशील व्यक्तित्व एवं वक्तृत्व कला के बल पर उन्होंने शिक्षित भारतीयों का ध्यान आकृष्ट किया। अपने आदर्शों की पूर्ति हेतु उन्होंने शिक्षा संस्थाएं भी खोली। बनारस का सेंट्रल हिंदू कॉलेज इसी प्रकार की संस्था है।
इस प्रकार हिंदी भाषा की देश के सांस्कृतिक जागरण में योगदान करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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