आत्मोत्कर्ष की ओर सकारात्मक कदम है स्वाध्याय

आत्मोत्कर्ष की ओर सकारात्मक कदम है स्वाध्याय

                      

                                         डॉ. साधना गुप्ता


स्वाध्याय शब्द दो शब्दों स्व और अध्ययन से मिलकर बना है जब मनुष्य स्वयं अपने अंतःकरण की गहराइयों में चिंतन मनन के सहारे प्रवेश करता है तब वह वहाँ उपयोगी तत्वों का बीजारोपण तथा  अनावश्यक तत्वों का उन्मूलन या निष्कासन कर पाता है इस दृष्टि से मनन एवं चिंतन को स्वाध्याय का मूल आधार कहा जाता है। हमारे उपनिषदों में  पुकार पुकार  कर कहा गया है,- अपने को सुनों, अपने बारे में जानों, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिंतन करो। 

 

वास्तव में हम अपने को शरीर मानकर जीवन की उन गतिविधियों को निर्धारित करते हैं जिनसे शरीर  का स्वार्थ अत्यल्प ही सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्याण के लिए हमारे जीवन क्रम में स्थान ही कितना होता है ?  हम स्वयं को केवल शरीर मानते हैं। इसके स्थान पर यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन   समझे तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तब हमारी समस्त गतिविधियां ही उलट जाएगी।  हम आत्मा के हित, लाभ और कल्याण को ध्यान में रखकर अपनी रीति नीति निर्धारित करेंगे ।यह विद्या किस तरह प्राप्त होती है? प्रश्न का समाधान है - स्वाध्याय से।


स्वाध्याय - जिज्ञासाओं के समाधान का सबसे उपयुक्त माध्यम यदि कोई है तो वह स्वाध्याय है। मनुष्य की प्रकृति के प्रमुख आधार के रूप में स्वाध्याय को शास्त्रों में वर्णित किया गया है। इसे मनुष्य के धर्म कर्त्तव्यों  में सम्मिलित किया गया है तथा उसे पूरी तत्परता से नियम पूर्वक चलाते रहने का आग्रह भी किया गया है।


प्रश्नो का समाधान प्राप्त -   मनुष्य का मस्तिष्क एक समय में इतने अधिक विचारों से भरा होता है कि क्षण क्षण नई लहरें उठती रहती है। अनेकताओं के कारण ही आंतरिक और बाह्य जीवन में अनेक संघर्ष उत्पन्न होते हैं। विचार संग्राम के ऐसे समय  में पुस्तकें ही मनुष्य जीवन के लिए प्रभावशाली शस्त्र सिद्ध होती हैं क्योंकि एक व्यक्ति का ज्ञान सीमित, एकांगी हो सकता है लेकिन उत्तम पुस्तकों के स्वाध्याय से मनुष्य अपनी समस्याओं का सही समाधान ढूंढ सकता है।


स्वाध्याय के लिए आवश्यकता -


एकाग्रता - अध्ययन को विचार परिष्कार का साधन कहा गया है अतः इसमें योग साधक के समान एकाग्रता, तन्मयता और ग्रहणशीलता होनी चाहिए।


अतः आवश्यक है प्रत्येक  परिच्छेद को ध्यान पूर्वक पढ़ते हुए , पढ़ने के बाद कुछ समय रुक कर चिन्तन द्वारा लेखक के मन्तव्य जो समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। इससे विचार परिष्कार में काफी मदद मिलती है, विवेक शक्ति का विकास होता है।। साथ ही अत्यंत महत्वपूर्ण यह भी है कि अपनी विवेक शक्ति जो जागरुक रख हम लेखक के विचारों की अपने जीवन में उपयोगिता को समझे, आँख मूंद कर उन पर विश्वास न करें। पास में नोट बुक अवश्य रखनी चाहिए जिसमें पुस्तक के महत्वपूर्ण अंश, विशेष वाक्यों और अध्ययन के निष्कर्ष को नोट किया जा सके।

 

नियमितता- हमें स्वाध्याय में नियमितता रखनी चाहिए। इस हेतु इसे दैनिक जीवन के आवश्यक कार्यों में शामिल करना चाहिए, साथ ही अवकाश का समय भी अपनी विचार शक्ति के अपव्यय को रोकने और एकाग्रता बनाए रखने हेतु स्वाध्याय को देना चाहिए।


विशेषताएँ -


मानसिक उलझनों से मुक्ति - मानसिक उलझनों से आने वाली परेशानी के वक्त यदि प्रेरणादायक पुस्तको का स्वाध्याय किया जाए तो चिताएँ, उलझनें स्वतः ही समाप्त हो जाती है क्योंकि उनमें नष्ट हो रही हमारी शक्ति अध्ययन की दिशा में मुड़ जाती है।


एकाकीपन से मुक्ति -  पुस्तक से अच्छा कोई मित्र नहीं, अतः स्वाध्याय के माध्यम से ज्ञान के सागर में डूबकी लगाकर जीवन को अलंकृत करने वाले अनमोल मोती प्राप्त किये जा सकते हैं। अस्तु , इसके लिए सदैव अपने पास कोई पुस्तक रखनी चाहिए।



जीवन संघर्षो से टकराने की क्षमता का विकास - जीवन संघर्ष का नाम है जिसके लिए जिस ज्ञान की, जिस बौद्धिक क्षमता की, जिस विवेचन शक्ति की आवश्यकता होती है, वह स्वाध्याय के माध्यम से ही उपलब्ध होती है।


 अतः जीवन से अनुराग रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान का महत्व समझते हुए अपने अन्दर जिज्ञासु भाव विकसित कर जीवन में स्वाध्याय को अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए। तो देर क्यों ,- शुभस्य शीघ्रं।

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