प्रतीक समर्पण होता है पूजा-अर्चन
प्रतीक समर्पण होता है पूजा-अर्चन
डॉ. साधना गुप्ता
प्रत्येक समाज में पूजा-अर्चना का एक विशेष रूप अवश्य होता है, जिसका उद्देश्य होता है स्वयं के व्यक्तित्व को परिष्कृत कर जीवन को व्यवस्थित बनाना। वास्तव में यही ईश्वर की पूजा, उपासना और अभ्यर्थना है।
वेदांत विज्ञान के चार महत्वपूर्ण सूत्र हैं -
तत्वमसि
अयमात्मा ब्रह्म
प्रज्ञानं ब्रह्म
सोsहम्
इन चारो का एक ही अर्थ है ,- परिष्कृत जीवात्मा हीहपरम ब्रह्म है । जैसे - हीरा और कुछ नहीं ,कोयले का ही परिष्कृत रूप होता है। हीरा मूल रूप में तो होता है कोयला ही है, परंतु जब उसके कण व्यवस्थित रुप में स्थापित होते हैं तो वह हीरा बन जाता है। अर्थात् श्रेष्ठ बन जाता है। ठीक ऐसी ही स्थिति मानव की है । यदि इसके मन-मस्तिष्क में, अन्तः करण में विद्यमान गंदगी को, कल्मष- कषाय को उतार कर फेंक दिया जाए तो उसका वास्तविक सौंदर्य अतुलनीय होगा। चाहे उसका बाहरी रूप अष्टावक्र जैसा ही क्यों न हो और यदि इसके अन्तः करण का सौंदर्य प्रकट हो जाता है तो वह बाहरी कुरूपता महत्वहीन हो जाती है।
गीताकार ने कहा है - मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है और स्वयं ही अपना मित्र है।
मन ही बंधनों और मोक्ष का कारण है
सत्य ही मनुष्य की एक मुट्ठी में स्वर्ग है तो दूसरी में नरक
वह किसी को भी खोल सकता है। जाहिर है वह स्वर्ग वाली मुट्ठी खोलना पसन्द करेगा और इसी का प्रयास है आराध्य की पूजा अर्चना और उसके विधि विधान ।
चूंकि जिसका ध्यान किया जाता है उसे लक्ष्य मानकर तद्रूप बनने का प्रयत्न किया जाता है। उस स्तर की महानता से स्वयं को संयुक्त करने का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के रूप में गायत्री मंत्र का जप और उदीयमान सूर्य का ध्यान करना ।
गायत्री मंत्र का ध्यान अर्थात् सामूहिक विवेकशीलता को अपनाना।
सूर्य का ध्यान अर्थात् सूर्य की विशेषताएं ऊर्जा और आभा को आदर्श मानकर प्रगतिशील व पुरूषार्थ परायण बनना।
ज्ञान रूपी प्रकाश से सर्वत्र प्रगतिशीलता का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार करते हुए स्वयं प्रकाशित होना, दूसरों को प्रकाशित करना। यही कारण है कि ध्यान के समय शरीर में ओजस्, मस्तिष्क में तेजस् और अन्तः करण में वर्चस् की भावना समाहित होती है। और ऐसे ही हमारे प्रयत्न भी होना चाहिए क्योंकि भावना के साथ कर्म का मिश्रण ही इष्ट परिणाम तक पहुँचाने में माध्यम होता है।
देव पूजन - देव पूजन में कर्मकांडो के माध्यम से प्रतिकोपासना का विधान किया जाता है। अर्थात् संकेतों के आधार पर क्रियाकलापों का निर्धारण किया जाता है।
वस्तुतः देव प्रतिमा एक पूर्ण मानव की परिकल्पना है जिसके उपासक को भी हर परिस्थिति में वैसे ही सम बने रहना है ।
पूजन अर्घ्य में जल, अक्षत, पुष्प, चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य को संजो कर रखा जाता है जो संकेत स्वरूप हैं,-
जल - जल शीतलता का प्रतीक है अर्थात् हम शांत ,सौम्य और संतुलित रहैं।
अक्षत - अक्षत अर्थात् अपने उपार्जन का एक अंश दिव्य प्रयोजनों के लिए नियोजित करने के लिए अटूट निष्ठा बनाए रखना, उदार व अक्षत रहना।
पुष्प - पुष्प अर्थात् हँसते- हँसाते, खिलते-खिलाते रहने की प्रवृत्ति अपनाना।
चन्दन - चन्दन अर्थात् अपने समीपवर्तियों को अपने जैसा सुगंधित बना लेना । कटे या घिसे जाने जैसी विकट परिस्थितियों में भी दूसरों को प्रमुदित करने वाले अपने स्वभाव को नही छोड़ें।
धूप - धूप अर्थात् हम वातावरण को अपने अच्छे कार्यो, अच्छे व्यवहार से परिपूर्ण कर सुगंधित बनाएं ।
दीपक - दीपक अर्थात् ज्ञान का प्रकाश व्यापक बनाने हेतु हम अपने साधनों में से कुछ का उत्सर्ग करने हेतु हमेशा तत्पर रहें।
नैवेद्य - नैवेद्य अर्थात् हम सदैव दूसरों को मिठास बाटते रहें।
वस्तुतः इन के माध्यम से हम स्वयं को प्रशिक्षित करते हैं ।देवत्व के अवतरण हेतु पात्रता से युक्त करते हैं, अतः प्रतीक समर्पण होता है पूजा-अर्चन।
अत्युत्तम
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