साहित्यिक हिंदी के रूप में खड़ी बोली हिंदी का उदय तथा विकास
साहित्यिक हिंदी के रूप में खड़ी बोली हिंदी का उदय तथा विकास
डॉ. साधना गुप्ता
खड़ी बोली गद्य की सर्वप्रथम उल्लेख रचना अकबर के दरबारी कवि गंग की 'चंद छंद बरनन की महिमा' है इसका रचनाकार 1570 ई. है। इसके अतिरिक्त रामप्रसाद निरंजनी की 'भाषा योग वशिष्ठ' नामक रचना खड़ी बोली गद्य में लिखी गयी है।
खड़ी बोली गद्य के विकास में जिन चार लेखको का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उनके नाम एवं कृतियां हैं -
मुंशी सदासुख लाल - सुख सागर
इंशा अल्ला खां - रानी केतकी की कहानी
लल्लूलाल - प्रेम सागर
सदल मिश्र - नासिकेतोपाख्यान
रानी केतकी की कहानी आधुनिक काल में लिखी गई हिंदी की पहली मौलिक रचना है जिसकी भाषा मुहावरेदार, विनोदपूर्ण औरआनुप्रासिक है।
लल्लू लाल की भाषा में पंडिताऊपन और सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन है किंतु सदा सुखलाल की भाषा अधिक महत्व की है।
फोर्ट विलियम कॉलेज - सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना हुई जिसमें हिंदी और उर्दू के अध्यापन के रूप में जान गिलक्राइस्ट की नियुक्ति हुई। लल्लूलाल एवं सदल मिश्र दोनों भी फोर्ट विलियम कॉलेज में थे।
ईसाई धर्म प्रचारकों का योगदान -
ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी हिंदी गद्य के विकास में योगदान दिया। अपने धर्म को श्रेष्ठ बताने के लिए ये निःशुल्क पैम्फलेट जनता में वितरित करते थे जिसमें माध्यम के रूप में भाषा खड़ी बोली हिन्दी ही होती थी। अतः उद्देश्य की भिन्नता होने पर भी खड़ीं बोली गद्य को बल मिला।
शिक्षा क्षेत्र में नवीन विषयों पर हिंदी में पुस्तकें उपलब्ध कराने में भी इनका योगदान रहा।
राजा द्वय - खड़ी बोली गद्य के विकास में राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह का नाम भी उल्लेखनीय हैं। सितारेहिंद की भाषा में उर्दूपन अधिक है, जबकि लक्ष्मण सिंह की भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता है।
सितारेहिंद के प्रयत्नों से ही कंपनी सरकार ने संस्कृत कॉलेजों में हिंदी शिक्षा को स्थान देना स्वीकार किया।
पंजाब के श्रद्धाराम फुल्लोरी ने संस्कृत का विद्वान होते हुए भी हिंदी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उन्होंने भाग्यवती नामक उपन्यास और सत्यामृत प्रवाह नामक धार्मिक पुस्तक लिखी। जिनकी रची हुई आरती 'ओम जय जगदीश हरे' बहुत प्रचलित हुई।
भारतेंदु हरिश्चंद्र - भारतेंदु हरिश्चंद्र जी से पहले हिंदी में दो शैलियां प्रचलित थी -
उर्दू फारसी शब्द वाली हिंदी
संस्कृतनिष्ठ विशुद्ध हिंदी
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मध्यम मार्ग को अपनाते हुए सरल, स्वाभाविक हिंदी गद्य को विकसित किया, जिसमें उर्दू एवं संस्कृत के प्रचलित शब्दों को ही स्थान दिया।
भारतेंदु को हिंदी गद्य के जनक भी माना गया हैं।
महावीर प्रसाद द्विवेदी - भारतेंदु की भाषा में व्याकरण संबंधी जो अव्यवस्था थी, उसका निराकरण द्विवेदी युग में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयासों से हुआ।
उन्होंने हिंदी गद्य का संस्कार एवं परिमार्जन किया।
व्याकरण संबंधी भूलों का सुधार,
विराम चिह्नों का प्रयोग,
वाक्य विन्यास में व्यवस्था लाने का कार्य द्विवेदी जी ने किया।
बाद में प्रेमचंद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ नगेंद्र जैसे विद्वानों ने हिंदी गद्य को उसके चरम उत्कर्ष पर पहुंचाया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित चिंतामणि हिंदी गद्य का निकष है और मानदण्ड भी।
खड़ी बोली हिंदी में पद्य रचना को प्रोत्साहित करने का श्रेय भी आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को ही जाता है। उन्होंने सरस्वती पत्रिका के संपादक के रूप में हिंदी खड़ी बोली कविता को प्रोत्साहन दिया।
उनसे पूर्व हिंदी की कविता ब्रज भाषा में एवं गद्य खड़ी बोली में लिखा जाता था। उन्होंने हिंदी की खड़ी बोली को गद्य एवं पद्य दोनों की भाषा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मैथिलीशरण गुप्त का साकेत, अयोध्यासिंह उपाध्याय का प्रियप्रवास खड़ी बोली हिंदी में लिखे गए महाकाव्य हैं।
छायावाद - खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में उत्कर्ष तक पहुंचाने का कार्य छायावादी कवियों प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी ने किया। जयशंकर प्रसाद की कामायनी छायावादी युग का महाकाव्य है ।
सुमित्रानंदन पंत की कृति पल्लव, महादेवी की दीपशिखा एवं निराला की अनामिका की इस काल की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
ततपश्चात प्रगतिवादी कवियों ने हिंदी खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में समृद्ध करने में योगदान दिया।
नागार्जुन, दुष्यंत कुमार, वीरेंद्र मिश्र, त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय जैसे कवियों का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है।
खड़ी बोली गद्य की विविध विधाओं, - नाटक, एकांकी, कहानी, उपन्यास, रेखाचित्र, जीवनी, संस्मरण, आत्मकथा, निबन्ध, आलोचना आदि से संबंधित प्रचुर रचनाएं सतत लिखी जा रही है। इस प्रकार हिंदी दिनोंदिन उन्नति के पथ पर अग्रसर है।
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