समाज , शिक्षा और नैतिक मूल्य

       

   समाज , शिक्षा और नैतिक मूल्य

                                              डॉ  साधना गुप्ता                                  

    आहार -निद्रा  मैथुन जीव मात्र की जैविक आवश्यकताएं हैं जिनकी समाज सम्मत पूर्ति सिखाना, समाज में  सुव्यवस्था बनाए रखना संस्कारों का काम है तथा जो संस्कारित करें वह शिक्षा कहलाती है। आज पुस्तकीय ज्ञान के रूप में दी जा रही शिक्षा यह कदापि नहीं कर रही है, जिसका प्रमाण समाज जीवन के कण-कण में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है -मानसिक मूल्यों के संकट के रूप में ,विदेशी विघटनकारी शक्तियों की सक्रियता के रूप में, राष्ट्र की सार्वभौम सत्ता ,-भावनात्मक एकता के समक्ष चुनौतियों ,यथा- आतंकवाद ,नक्सलवाद ,मादक द्रव्यों की तस्करी, भ्रष्टाचार, भ्रूणहत्या ,बलात्कार ,बेकारी, गरीबी, भूखमरी, सांप्रदायिकता, भाषावाद ,क्षेत्रवाद, ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, सीमा पर घुसपैठ ,अवैध व्यापार, देह व्यापार, मानव अंगों की तस्करी ,बच्चों व युवतियों का अपहरण,बलात्कार, हत्या,समलैंगिक संबंध, लिव इन रिलेशनशिप ,टूटते बिखरते परिवार और उनसे उपजी वृद्धों व बालकों के आश्रय की समस्या,असंतोष, अराजकता,अकेलापन, अवसाद इत्यादि अनगिनत समस्याओं के रूप में। ऐसे में शिक्षा का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है ।इस दायित्व की पूर्ति कैसे हो ?यह यक्ष प्रश्न है जिसके समाधान के लिए हमें इन समस्याओं के मूल कारण की खोज करनी होगी और वह है मानव का नैतिक व चारित्रिक पतन।

 नैतिक मूल्य :- इस समस्या का हल भी हमारे पास है ,वह है "नैतिक शिक्षा"नौकर पैदा करना शिक्षा का उद्देश्य नहीं होता जैसा कि आज मान लिया गया है, शिक्षा का उद्देश्य मानव शरीर प्राप्त नर पशु को मानवीय मूल्यों से संस्कारित करना होता है जो उसे पेट प्रजनन की जैविक आवश्यकताओं से ऊपर उठाकर देवत्व प्रदान करती है ।यदि बालक के परिवेश में नैतिकता का तत्व विद्यमान नहीं है तो उस पर स्वार्थी प्रवृत्ति प्रबल होकर येन केन प्रकारेण इच्छा पूर्ति करने हेतु बाध्य करेगी। उसे सामाजिकता का पाठ नैतिक मूल्य ही पढ़ाते हैं ।बालक जन्म से लेना सीख कर आता है ।देना, दूसरों के लिए सोचना उसे यह नैतिक मूल्य ही सिखाते हैं ।भगवत गीता में कहा भी गया है "जन्मना जायते शुद्र:, संस्कारात  भवेत् द्विजः"।

  यद्यपि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा 84 नैतिक मूल्यों की तालिका तैयार की गई है परंतु मानवीय भावनाओं को संख्या बद्ध नहीं किया जा सकता ।अतः इनकी पूर्ण सूची तैयार करना संभव नहीं है क्योंकि "जियो और जीने दो" और "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना का प्रसार करने वाले यह गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास के संग समाज के किसी भी प्राणी के विकास का मार्ग अवरुद्ध नहीं करते। मानव के संपूर्ण क्रियाकलापों में इनका अस्तित्व उसी प्रकार अभिव्यक्त होता है जैलसे पुष्प में गंध ।वस्तुतः यह मानव को मानव बनाने वाले चेतन तत्व हैं -वैयक्तिक होकर भी सामाजिक, अतः विवेक से संचालित होते हैं ।एक छोटे से उदाहरण से इसे समझ सकते हैं -मार्ग में बाएं चलने की प्रवृत्ति का  ठीक से पालन हो तो सड़क पर होने वाले हादसों से स्वत: मुक्ति मिल जाएगी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह मानव विवेक में स्थित आंतरिक अंत:स्फूर्त तत्व हैं  जो उसके व्यक्तित्व के विकास का आधार बनते हैं, सामाजिक जीवन को सुगम बनाते हुए समाज जीवन पर परोक्ष रूप से नियंत्रण रखते हैं। सत्य ,अहिंसा ,परोपकार ,विनम्रता ,सच्चरित्रता इत्यादि इन गुणों का धर्म से कोई विरोध नहीं होता। धर्म  इन्ही के पालन का दूसरा नाम है परंतु धीरे-धीरे विकृतियां आ जाने से वह पथ भ्रष्ट अवश्य हो गया है।

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