हिंदी एवं अपभ्रंश भाषा का अंतर

 हिंदी एवं अपभ्रंश भाषा का अंतर

                                       डॉ. साधना गुप्ता 


    कोई  भी   भाषा  संचित  जलाशय  नहीं  वरन् सहज प्रवाहित झरना होती है जो स्वतंत्रता के संग लगातार आगे बढ़ता रहता है और अपने अवदान को लुटाता  रहता है। हमें स्मरण है वैदिक संस्कृत से संस्कृत, - पालि ,- प्राकृत,- अपभ्रंश का सफ़र तय करते हुए   हिंदी भाषा का उद्भव हुआ है। हिंदी का  विकास  अपभ्रंश  के  क्षेत्रीय  रूप   शौरसेनी अपभ्रंश से  हुआ है  परंतु  शौरसेनी अपभ्रंश और हिंदी में बहुत से  अंतर है, जिन्हें हम यहां देखने का प्रयास करते हैं,- 

1.  अपभ्रंश में केवल 8 स्वर थे - अ, आ,इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ । यह आठों ही मूल स्वर थे, लेकिन हिंदी में इनकी संख्या बढ़कर ग्यारह हो गयी,-

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ,  ऋ,  ए, ऐ, ओ, औ

 इनमें मूल स्वर केवल चार (अ, इ, उ,  ऋ) हैं।

च,  ज , झ,  छ, अपभ्रंश में स्पर्श व्यंजन थे परन्तु हिंदी में आकर यह स्पर्श-संघर्षी हो गए।

3. न, र, ल, स ध्वनियां अपभ्रंश में दन्त्य ध्वनियां थी।हिंदी में ये वत्सर्य ध्वनियां  हो गयी।

4. अपभ्रंश में ड़, ढ़  ध्वनियां नहीं थी। हिंदी में इनका प्रयोग होने लगा।

5. न्ह, म्ह, ल्ह अपभ्रंश में संयुक्त व्यंजन थे जो हिंदी में आकर क्रमशः न, म, ल के महाप्राण रूप हो गए।  अर्थात् अब ये संयुक्त व्यंजन न रह कर मूल व्यंजन बन गए।

6. संस्कृत, फारसी के कुछ शब्द हिंदी में आ गए थे जिससे कुछ नए संयुक्त व्यंजन जो अपभ्रंश में नहीं थे, हिंदी में आ गए।

7.  अपभ्रंश एक ऐसी भाषा थी जिसमें क्रिया एवं कारकीय रूप संयोगात्मक होते थे ,किंतु हिंदी में  योगात्मक रूपों की प्रधानता दिखलाई पड़ती है।

8.  सहायक क्रियाओं और परसर्गों  का हिंदी में प्रयोग होने लगा जो उसकी वियोगात्मक प्रवृत्ति का परिचायक है।

9.  हिंदी वाक्य रचना में शब्द क्रम धीरे-धीरे निश्चित होने लगा जो अपभ्रंश में पूर्ववर्ती भाषाओं की भांति अनिश्चितता था।

10.  हिंदी के शब्द भंडार में संस्कृत शब्दावली के साथ-साथ पश्तो,फारसी तुर्की आदि भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त होने लगे। कुछ नए व्यंजन भी हिंदी में आए, जैसे - 

क़  -  क़यामत 

ख़  -  ख़बर

ग़  -  ग़या

ज़  -  रोज़

फ़  -  गफ़लत

   इन ध्वनियों का उच्चारण वर्गीय ध्वनियों के अनुसार  ही   होगा  परंतु  घर्षण  अधिक  करना पड़ेगा। कुछ विद्वानों का मत है कि इन ध्वनियों का उच्चारण हिंदी में क, ख , ग, ज, फ के समान ही किया जाए। कुछ लोग इनका उच्चारण मूल रूप में ही करना चाहते हैं। इस संबंध में एक तीसरा मत भी है। इस मत के  समर्थकों  का  कथन  है   जहां नाटकों आदि में  हम  मुस्लिम  वातावरण  प्रस्तुत करना चाहे वहां तो इनका उच्चारण  मूल  रूप में किया   जाए  परंतु  अन्य  सभी  स्थानों  पर  यह ध्वनियां क, ख, ग ,ज,  और  फ और के रूप में ही उच्चरित की जाए ।   यह  तीसरा  मत ही अधिक व्यावहारिक है। 

   इस  तरह  हिंदी  ने  अपनी   विशेषताओं   को  विकसित  करते  हुए  अपना  विकास  किया  जो उसकी स्वतन्त्र  प्रवृत्ति का द्योतक है,  साथ     ही उसका वैशिष्ट्य भी कहा जाएगा।  हिंदी भाषा के पास संस्कृत की भी ध्वनियों का पर्याप्त भंडार है

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