हिंदी एवं अपभ्रंश भाषा का परस्पर सम्बन्ध

 हिंदी एवं अपभ्रंश भाषा का परस्पर                        सम्बन्ध

                                           डॉ. साधना गुप्ता

 आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास अपभ्रंश भाषा से हुआ है। हिंदी का विकास भी अपभ्रंश से ही हुआ है । वैदिक संस्कृत से संस्कृत,   संस्कृत से  पालि,     पालि से प्राकृत,   प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से हिंदी का विकास हुआ। अपभ्रंश भाषा  से   विकसित  होने  के  कारण  हिंदी  एवं अपभ्रंश  में  सम्बंध  स्वाभाविक  है  जिसे  निम्न बिंदुओं से स्पष्ट किया जा सकता है -  


1. अपभ्रंश  भाषा का प्रयोग यद्यपि 12 वीं शताब्दी तक साहित्य के अंतर्गत होता रहा किंतु 1000 ईसवी तक आते-आते हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी अतः हिंदी भाषा का प्रारंभ 1000 ईस्वी से हुआ ऐसा माना जाता है जो तर्कसंगत भी है।


2. अपभ्रंश में प्रयुक्त तद्भव शब्दों को हिंदी ने ग्रहण कर लिया गया है।


3. अपभ्रंश  की ध्वनियां भी हिंदी में प्रचलित हैं ।कुछ नई ध्वनियों का विकास हिंदी में अतिरिक्त रूप से हुआ है यथा,- ड़ ,ढ, व, न्ह, म्ह, ल्ह । 


4. भाषा की प्रवृत्ति कठिन  से सरलता की ओर  रहती है। संस्कृत में तीन वचन, तीन लिंग थे, जबकि हिंदी में दो वचन एवं दो लिंग ही रह गए।

    

संस्कृत में जहां 24 रूप बनते थे, वहां हिंदी में केवल दो रूप रह गए,- मूल रूप और विकारी रूप।


5.  शौरसेनी अपभ्रंश उस काल की साहित्यिक भाषा थी। गुजरात से लेकर बंगाल तक तथा शूरसेन प्रदेश से लेकर बरार तक इसका एक छत्र साम्राज्य था। हिंदी भी विस्तृत क्षेत्र की भाषा है।


6. हिंदी ने अपभ्रंश  की सारी प्रवृत्तियों को अपनाया है। संस्कृत, पालि, प्राकृत संयोगात्मक भाषाएं थी, जबकि अपभ्रंश  भाषा वियोगात्मक थी। 

   संज्ञा, सर्वनाम के कारक रूपों के लिए अपभ्रंश में कारक चिन्ह अलग से लगने लगे थे। यही प्रवृत्ति हिंदी ने भी ग्रहण की।


7.  अपभ्रंश में  नपुंसक लिंग  नहीं थे, उसी तरह हिंदी में  भी नपुंसक लिंग नहीं है।


8.  काव्य में प्रयुक्त भाषा को अपभ्रंश कहा गया है तथा बोलचाल की तत्कालीन भाषा को देशभाषा कहा गया।


9.  अपभ्रंश के कुछ उदाहरण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में उदधृत किए हैं जो पुरानी हिंदी के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं , - 

भल्ला हुआ जो मारिया बहिणि म्हारा कंतु।

लज्जेजं तु वयस्सि अहु जे भग्गा घर एन्तु।।

                            मुंज कवि, 8वीं शताब्दी

 'अर्थात् भला हुआ जो मेरा कंत युद्ध में मारा गया है।है सखी! यदि वह युद्ध क्षेत्र से कायरता पूर्वक भाग कर घर आता तो मैं सखियों में लज्जित होती।'

   

   वस्तुतः अपभ्रंश से विकसित होने के कारण हिंदी ने अपभ्रंश की अनेक विशेषताओं को आत्मसात किया है। इसका कारण भी है कोई भी भाषा  अपने विकास क्रम में अपनी पूर्व की भाषा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए ही विकास के पथ पर अग्रसर होती है। यही कारण है कि नवीनता को अपनाते हुए भी अपनी परम्परा के अंश उसमें विद्यमान रहते हैं। हिंदी भाषा में भी यही प्रवृत्ति दिखलायी देती है।


परन्तु हिंदी की अपनी विशेषताएं भी है जो उसे अपभ्रंश से अलग करती हैं यथा- नवीन स्वरों का आगमन,  व्यंजनों  की स्थिति में परिवर्तन,  नवीन शब्दों का आगमन, शब्द क्रम की निश्चितता, सहायक क्रियाओं और परसर्गों इत्यादि का प्रयोग आदि जो स्वतन्त्र विवेचन का विषय है।

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