लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गीता रहस्य

 लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गीता रहस्य

                                               डॉ. साधना गुप्ता

गीता रहस्य के रचनाकार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1857 को  वर्तमान महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी जिले के एक गाँव चिखली में हुआ था। ये आधुनिक कालेज शिक्षा पाने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में से एक थे। ये कुछ समय अध्यापक भी रहे स्कूल और कालेजों में गणित पढ़ाया। अंग्रेजी शिक्षा के ये घोर आलोचक थे और मानते थे कि यह भारतीय सभ्यता के प्रति अनादर सिखाती है। 

 लाल-बाल-पाल- गरम दल में लोकमान्य बल गंगाधर तिलक के साथ लाला लाजपत राय और श्री बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे। इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से पहचान मिली।

लोकमान्य ”- गंगाधर तिलक ने एनी बेसेंट जी की मदद से होम रुल लीग की स्थापना की |होम रूल आन्दोलन के दौरान  बाल गंगाधर तिलक को काफी प्रसिद्धी मिली, जिस कारण उन्हें “लोकमान्य” की उपाधि मिली थी। 

गीता-रहस्य - लोकमान्य तिलक ने यूँ तो अनेक पुस्तकें लिखीं किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल (बर्मा) में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोत्कृष्ट है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

   तिलक  के द्वारा गीतारहस्य  लिखने का कारण यह था कि वे इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि  गीता जैसा ग्रन्थ केवल मोक्ष की ओर ले जाता है। उसमें केवल संसार छोड़ देने की अपील है। वह तो कर्म को केंद्र में लाना चाहते थे। वही शायद उस समय की मांग थी। जब देश गुलाम हो, तब आप अपने लोगों से मोक्ष की बात कैसे कर सकते? उन्हें तो कर्म में लगाना होता है। वही तिलक ने किया।

गीता रहस्य में  उन्होने श्रीमदभगवद्गीता के कर्मयोग की वृहद व्याख्या की।  गीता के निष्काम कर्म योग को निवृत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति से जोड़ते हुए  इस ग्रन्थ के माध्यम से बताया कि गीता  का चिन्तन उन लोगों के लिए नहीं है जो स्वार्थपूर्ण सांसारिक जीवन बिताने के बाद अवकाश के समय खाली बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगते हैं और  जिसका फल मोक्ष प्राप्ति के रूप में प्राप्त हो जाता है वरन गीता के  रहस्य में यह दार्शनिकता निहित है कि हमें मुक्ति की ओर दृष्टि रखते हुए सांसारिक कर्तव्य कैसे करने चाहिए। अर्थात मोक्ष पर दृष्टि  रखते हुए सांसारिक कर्म करे ,- पूर्णतः निष्काम। संसार से पलायन नहीं, अपने सांसारिक कर्तव्यों के पालन का पाठ पढ़ाते हुए  इस ग्रंथ में उन्होंने मनुष्य को  संसार में उसके वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराया है।अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करनेवाली, दोनों  सेनाओं के मध्य खड़े कृष्ण का गीता  उपदेश केवल मोक्ष की बात कैसे कर सकता है? इसीलिए उन्होंने कहा, "मूल गीता निवृत्ति प्रधान नहीं है। वह तो कर्म प्रधान है।"

गांधीजी गीता को अपनी माता कहते थे। उन्होंने भी गीतारहस्य को पढ़ कर कहा था कि गीता पर तिलकजी की यह टीका ही उनका शाश्वत स्मारक है।   

गीतारहस्य को इन्होंने  मात्र पांच महीने के अल्प समय में पेंसिल से ही उन्होंने लिख डाला था। एक दौर में लगता था कि शायद ब्रिटिश हुकूमत उनके लिखे को जब्त ही कर ले। लेकिन उन्हें अपनी याददाश्त पर बहुत भरोसा था। इसीलिए अपने बन्धुओं से कहा था, "डरने का कोई कारण नहीं। हालांकि बहियां सरकार के पास हैं। लेकिन तो भी ग्रंथ का एक-एक शब्द मेरे दिमाग में है। विश्राम के समय अपने बंगले में बैठकर मैं उसे फिर से लिख डालूंगा।"

 

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