वर्तमान राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रानी लक्ष्मीबाई : एक दृष्टिकोण

 वर्तमान  राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रानी लक्ष्मीबाई : एक दृष्टिकोण

                                           डॉ. साधना गुप्ता

   "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी", की आन, बान, शान पर मर मिटने वाली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई केवल एक नाम नहीं है वरन अंग्रेजों की नींद उड़ा देने वाला, जन जन के मन में स्वतंत्रता का दीप जलाकर भारत को स्वतंत्र करवाने वाला एक दृष्टिकोण है, स्वतंत्रता की मशाल है। आइए देखें, वर्तमान राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस दीपशिखा के चारित्रिक गुणों की स्वयं सिद्धता। 


आत्म जागरूकता (Self Awareness)- अर्थात् स्वयं के प्रति सचेत, जागरूक होना। आपको अपने जीवन को कैसा बनाना है? आपको कैसा होना है? क्या बनना है? भविष्य में आप की पहचान समाज में क्या होनी चाहिए? इन सभी प्रश्नों के प्रति जागरूकता आपमें विश्वास जगाती है जीवन के प्रति और अपने प्रति भी। अतः इन बातों का फैसला आपका अपना होना चाहिए। क्योंकि ऐसा आत्मविश्वास उन्नति की ओर अग्रसर करते हुए आपको विशिष्ट बनाता है, भीड़ से अलग एक व्यक्तित्व देता है जो न केवल अद्वितीय होता है वरन अप्रतिम भी होता है ठीक रानी लक्ष्मीबाई के समान। 


    इससे आपको अपनी ताकत का, शक्ति-क्षमता ओं का एहसास होता है जो हमें उन्नति की ओर ले जाता है। वास्तव में हमारी परिस्थितियाँ और जो कुछ हम करते हैं उसके मध्य की सत्ता हमारी होती है जो सहज प्राप्त नहीं होती।  प्रयत्न से प्राप्त होती है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें सतत अभ्यास करना होता है।


   जब हम  मणिकर्णिका, मनु के जीवन में झांकते हैं तो हमें उसकी इस विशेषता का एहसास  सहज ही हो जाता है। मात्र चार वर्ष की अवस्था में अपनी माता के स्नेह से वंचित नन्हीं बालिका बिठुर में पिता के अतिरिक्त तीन लोगों का संरक्षण व स्नेह प्राप्त कर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करती है। यह तीन व्यक्ति थे बाजीराव पेशवा द्वितीय, उनके दत्तक पुत्र नानासाहेब और तांत्या टोपे। 

अपने नटखटपन से बाजीराव की छबीली, नानाभाऊ की छोटी मुंह बोली बहन बन कर मनु शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करते हुए बड़ी होती है। प्रातः जल्दी उठना, योगाभ्यास के साथ बहुत शीघ्र ही शास्त्र एवं शस्त्र में पारंगत हो जाती है। रामायण, गीता, शिवाजी की कथाएं इत्यादि सभी  उन्हें बचपन से ही कण्ठस्थ हो गए थे। तुतलाने की उम्र में संस्कृत के श्लोक का उच्चारण और उसके अर्थ को समझना- समझाना उनके लिए सहज था। गुड़ियों से खेलने की उम्र में वे भाला, बरछी, तलवार, तीरन्दाजी इत्यादि में पारंगत हो गई थी। तांत्या टोपे की प्रिय शिष्या मनु ने स्वयं ही आग्नेय बाणों का निर्माण किया था जो किले की दीवारों को भेदने में भी सक्षम थे। 


जब महिला होने के कारण उन्हें किन्हीं कार्यों को करने से रोका जाता है तो वे शास्त्र वचन से खंडन कर प्रतिपक्षी का मुंह बंद कर देती थी। गंगाधर राव नेवालकर से विवाह का कारण भी उनके चारित्रिक गुण ही थे। उन्होंने  मातृभूमि की स्वतंत्रता का व्रत बचपन में ही ले लिया था। 


आत्म प्रबंधन (Self Management) - अर्थात् हमारे जीवन में परिस्थितियां वह नहीं होती जो हम चाहते हैं। परिस्थितियों और हमारी आकांक्षाओं के मध्य संतुलन बैठाना हमें आना चाहिए। चाहे परिस्थितियां कैसी ही हों? हम तनाव रहित, भय मुक्त रहते हुए पूर्ण दृढ़ता एवं  आत्मविश्वास के संग उन परिस्थितियों में से अवसर तलाश लें। समयानुसार योजना बनाएं, शरीर व दिमाग को तेज रखते हुए त्वरित निर्णय लें। यही शक्ति हमें नेतृत्व क्षमता प्रदान करती है। 


लक्ष्मीबाई के जीवन में यह गुण  विद्यमान था। अपने चार माह के पुत्र की अकाल मृत्यु, पति महाराज का गिरता स्वास्थ्य एवं अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति को देखते हुए वह शीघ्र ही दामोदर को गोद लेती है ताकि सिंहासन को वारिस मिल जाए। 


 पुरुषों की सेना की संख्या को अपर्याप्त मानते हुए समकक्ष रूप में नारी सेना का गठन करती है। प्राप्त साधनों का उपयोग करते हुए उन्हें शत्रु पर वार और अपना बचाव, दोनों करना सिखाती है और अंग्रेजों से युद्ध में उनका पूर्ण सहयोग प्राप्त करती है। ऐसी अनेक बातें उनकी आत्मा प्रबंधन को प्रकट करती है। 


सामाजिक जागरूकता (Social Awareness) - हमें जो कुछ करना है उसका कार्यस्थल यह समाज होता है अतः सफलता के लिए समाज के प्रति जागरूक होना भी अत्यंत आवश्यक है। जब आप किसी से वार्तालाप कर रहे होते हैं तो आपका वार्तालाप करने का तरीका तभी प्रभावी हो सकता है जब आप सामने वाले व्यक्ति के भावों को, मस्तिष्क को, विचारों को समझें। सामने वाले को अपनी बात समझा सकने की योग्यता के लिए भाषा पर अधिकार के संग धैर्य, स्पष्टता और शालीनता भी आवश्यक होती है। 

लक्ष्मीबाई युद्ध कौशल के लिए इस तथ्य को आवश्यक मानती थी कि युद्ध में विजय सेना की संख्या से नहीं हौसलों से मिलती है। अर्थात् युद्ध होंसले से लड़े जाते हैं। सामने वाले की आंखों में देखो,- वह क्या करना चाहता है? और फुर्ती से प्रहार करो और अपना बचाव भी। प्रतिपक्षी को समझने और संभलने का मौका मत दो। पुत्र को पीठ पर बांध, घोड़े की लगाम को मुंह में थाम दोनों हाथों से तलवार बाजी कर उन्होंने इसे साकार कर दिखया था। 


 सन्  1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया ने झांसी पर आक्रमण कर दिया तब रानी लक्ष्मीबाई ने उनके आक्रमण को विफल किया। पति गंगाधर राव की मृत्यु पर अपने दत्तक पुत्र दामोदर को सिंहासन  पर बैठाने के लिए उन्होंने न्यायालय की शरण ली। वहां से असफल होने पर अंग्रेजो के द्वारा झांसी को अंग्रेजी राज्य में विलय के प्रस्ताव को ठुकरा कर कड़कती हुई घोषणा करती है,- 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी" 1858 में अंग्रेजी फौज द्वारा चारों ओर से झांसी के किले को घेर लेने पर, किले की ऊंची दीवार से घोड़े के संग छलांग लगाकर भाग निकलती है। आश्चर्य चकित अंग्रेज अफसर कुछ समझ पाते उसके पूर्व काफी दूर निकल जाती है। घोड़ा दौड़ाते हुए लंबी दूरी पार कर कालपी पहुँच तांत्या टोपे से मिलती है और अंग्रेजों के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्वालियर के किले पर एक ही दिन में अधिकार कर लेती है। इस तरह लगातार अंग्रजों की नीतियों को विफल करती जाती है। देश के राजाओं को स्वतंत्रता के लिए एकजुट करती है, उनका नेतृत्व करती है परन्तु अपने विश्वासपात्र घोड़े की अकाल मृत्यु एवं नए  घोड़े द्वारा नाला पार न कर पाने पर अंग्रेजों से घिर जाती है फिर  भी पूर्ण शक्ति से युद्ध करती है। बंदूक की गोली और तलवार से घायल होने पर भी अपने शरीर को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने देती है।


  महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन की यह विशेषताएं सिद्ध करती हैं,- "महत्वपूर्ण यह नहीं है कि जीवन में कितने पल हैं वरन   महत्वपूर्ण यह है कि हर पल में कितनी जिंदगी है"। जीवन के हर पल का पूर्ण उपयोग कर जीवन व स्वतंत्रता का एक दृष्टिकोण बन कर जन-मन में अमर, चिरस्मरणीय वीरांगना को हमारा शत-शत नमन....

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